नाटक-एकाँकी >> नींद क्यों रात भर नहीं आती नींद क्यों रात भर नहीं आतीसुरेन्द्र वर्मा
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छह बहुमंचित एकांकी......
nind kiyon rat bhar nahin aati Surendr Varma
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पात्र
स्त्रीः आयु लगभग 30 वर्ष
पुरुषः आयु लगभग 35 वर्ष
स्थान-समय
सोने का कमरा । दोपहर।
(बन्द दरवाज़े-खिड़कियों पर पर्दे खिंचे हुए हैं, इसलिए सबकुछ धुँधला है। हल्का-सा आभास कि डबल-बेड पर कोई लेटा या लेटे हुए हैं। कपड़ों की सरसराहट और चूँड़ियों की हल्की-सी खनखनाहट। स्त्री उठकर बैठती है। चप्पलों में पाँव डालते हुए खड़ी हो जाती है। एक दीवार के पास आकर स्विच दबाती है। प्रकाश। स्त्री पेटीकोट-ब्लाउज़ में है, बाल खुले हैं, बिस्तर पर पुरुष लेटा है-पैंट-बनियान में। स्त्री नाइट-टेबल तक आती है। उस पर प्लेट से ढँका जग व गिलास है। आधा गिलास भरती है। छोटे-छोटे घूँटों से खाली कर देती है। वापस रखती है। एकाएक ठिठक जाती है।)
स्त्रीः (पुरुष की ओर देखते हुए) पानी चाहिए तुम्हें ?
पुरुषः (आँखें खोलते हुए) दे दो।
(स्त्री आधा गिलास पानी का भरती है। पास आ जाती है। पुरुष उठकर बैठता है। गिलास लेकर दो-तीन बार में खाली कर देता है। स्त्री गिलास लेकर टेबल पर रख देती है। पुरुष एक-दो जमुहाइयाँ लेता है। सिरहाने से पैकेट व माचिस उठाता है। सिगरेट मुँह में दबाता है। सुलगाता है)
पुरुषः (बुझी तीली हाथ में लिए) ऐश-ट्रे उठा देना ज़रा।
(स्त्री हाथ बढाकर टेबल से ऐश-ट्रे उठाकर दे देती है।
पुरुष बगल में रखकर तीली उसमें डाल देता है।)
दो-तीन कश खींचता है।)
स्त्रीः इस घर की सफ़ाई कमाल है-हर चीज़ सही जगह पे रखी हुई....
पुरुषः (कुछ रुककर) रंजीत हमेशा से ही है ऐसा।
स्त्रीः (हलकी मुस्कान से) और तुम्हारे मनोहर का कमरा था।...बिलकुल कबाड़खाना !
पुरुषः (उबासी लेकर) मनमौजी आदमी है।
स्त्रीः (तनिक
ठहरकर) परसों नज़र आया था मुझे।
पुरुषः (स्त्री की ओर देखता है) अच्छा, कहाँ ?
स्त्रीः रीगल के स्टॉप पर।
पुरुषः क्या बात हुई ?
स्त्रीः (भौंहे चढ़ाकर) बात क्या होती ! मैं उसे देखकर लोगों की ओट में हो गयी।.....तुम समझते क्या हो ? उस दिन के हादसे के बाद मैं बात करूँगी उससे ?
पुरुषः (नरमी से) उस बेचारे की क्या गलती है ? वो तो खुद इतना शर्मिन्दा है !...चार दफ़ा उसने फ़ोन किया। फिर एक बार खुद आया माफ़ी माँगने।
स्त्रीः (नाराज़गी से) माफ़ी माँगने से क्या हो जाता है ?...सोचो ज़रा अगर वो औरत फ़ोन करके पुलिस को बुला लेती, तो ?...कितना हंगामा होता !...पता है, एडल्ट्री की क्या सज़ा है ?
पुरुषः (हलकी मुस्कान से) तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे मैं ही फँसता अकेला ! तुम्हारा कुछ नहीं होता !
स्त्रीः (मुस्करा पड़ती है) मेरा क्या होता ? मैं कह देती कि मेरे साथ....ज़बर्दस्ती की गयी है।
पुरुषः (रस लेते हुए) जी हाँ, ज़रूर ! पिछले दो सालों से हर शनिवार को मैं आपके साथ कर रहा हूँ ज़बर्दस्ती-और आप हैं कि चुपचाप, मजबूर होकर....
स्त्रीः (संजीदगी से) लेकिन उसे बतलाना तो चाहिए था कि मकान-मालकिन इस तरह की है !...और एक तुम हो कि न कुछ पूछा न ताछा, चाबी ली और चले आए मुँह उठाए !
पुरुषः मुझे क्या पता था कि वह कुतिया की तरह सूंघती फिरेगी !
स्त्रीः मुझे तो शक्ल से ही लगी थी कमीनी !
पुरुषः (कुछ रुककर) दरअसल बेसब्री में खयाल नहीं किया।...दिसम्बर में तबादला हुआ था टंडन का, और उसके बाद पूरे दो महीने बीत चुके थे...(दुष्ट मुस्कान से) रोज़ाना आता था तुम्हारा टेलीफ़ोन !
स्त्रीः (बुरा न मानते हुए) हाँ ज़रूर मैं ही तो पड़ी हूँ तुम्हारे पीछे !
(पुरुष चाहभरी दृष्टि से स्त्री को देखता है। एकाएक पास झुक आता है।)
पुरुषः (एक लट थामते हुए) तुम्हारे बाल कुछ-कुछ...पकने लगे हैं।
स्त्रीः (गहरी सांस लेकर) उम्र भी तो हो गई।
पुरुषः (सीधा हो जाता है) लगाती क्यों नहीं हो कुछ ?
स्त्रीः (उठती है। कुर्सी पर पड़ी अपनी साड़ी उठाते हुए) झंझट है एक बार शुरू करो तो चलता ही रहता है हमेशा।
पुरुषः (धुँए का छल्ला बनाते हुए, अर्धपूर्ण स्वर में) हाँ, झंझट तो है। एक बार शुरू करो, तो चलता ही रहता है हमेशा !
(दरवाज़े की ओर बढते हुए स्त्री बीच में ठिठक जाती है। पुरुष को देखती है-हलकी मुस्कान से। बाहर निकल जाती है। विराम। पुरुष सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल देता है। एक ब़ड़ी अँगड़ाई लेता है। इस-उस चीज़ को छूते हुए एकाध चक्कर लगाता है। रेडियोग्राम के सामने रुकता है। रेडियो का स्विच दबा देता है। सुई घुमाने लगता है। एक स्टेशन से संगीत की मद्धिम धुन सुनाई देने लगती है। आवाज़ बहुत कम कर देता है फिर एकाध चक्कर लगाता है। स्त्री का प्रवेश। साड़ी पहन ली है। मुँह धो लिया है।)
:पानी रख दिया ?
स्त्रीः हाँ।
(मेज़ पर से अपना पर्स उठाती है। ड्रेसिंग टेबल के सामने आ, स्टूल पर बैठ जाती है। पर्स खोलती है। मेकअप ठीक करने लगती है। पुरुष का प्रस्थान। विराम। स्त्री उठ खड़ी होती है आगे पीछे से आपने को आइने में देखती है। एकाध चक्कर लगाती है। इस-उस चीज़ को निरखती-परखती है। अलमारी खोलकर झाँकती है। पुरुष का प्रवेश।)
:कपड़े बहुत हैं तुम्हारे दोस्त के पास !
पुरुषः शौक़ीन तबियत है।
(आइने के सामने आ बालों में कंघी करने लगता है।) स्त्रीः देखने में कैसा है ?
पुरुषः अच्छा-खासा।
स्त्रीः ऐसा ?
पुरुषः हाँ दिखा दूँगा जल्दी।... वो भी कह रहा था कि किसी दिन बना लो प्रोग्राम।
स्त्रीः बिना देखे भी अन्दाज़ा लगा सकती हूँ मैं।
पुरुषः ऐसा ?
स्त्रीः हाँ...। आदमी को देखकर ग़लतफ़हमी हो सकती है घर के बारे में लेकिन घर को देखकर आदमी को बहुत-कुछ जाना जा सकता है।
पुरुषः तुमने ऐसे ही अन्दाज़ा लगाया था, मेरे पिछले दोनों दोस्तों के बारे में ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः सही निकला ?
स्त्रीः काफ़ी हद तक।....मैं ग़लत ज़रा कम होती हूँ।
पुरुषः (कुछ ठहरकर चोट खाया-सा) क्यों न हो ! इतना तजुर्बा जो है !
स्त्रीः स्थिर दृष्टि से देखती है । भावहीन। फिर तनिक-सा मुस्कराती है)
बुरा मान गए ?
(तत्क्षण बाहर चली जाती है। पुरुष पल-भर दरवाज़े की ओर देखता है। फिर कुर्सी पर पड़ी अपनी बुश्शर्ट उठाता है। आइने के सामने आ बटन लगाने लगता है। स्त्री दरवाज़े से झाँकती है।
:सुनो ! कुछ बिस्किट पड़े हैं यहाँ।..लोगे ?
पुरुषः दे दो।
(स्त्री चली जाती है। पुरुष पलंग तक आकर पैकेट उठता है। एक सिगरेट जलाता है। दो-तीन कश खींचता है। स्त्री का प्रवेश। छोटी-सी ट्रे में चाय के दो गिलास। एक प्लेट में कुछ बिस्किट। ट्रे टेबल पर रख देती है। दोनों चाय की एक-एक चुस्की लेते हैं। अचानक घंटी की आवाज़ सुनाई देती है। दोनों जहाँ के तहाँ, स्तब्ध रह जाते हैं। एक दूसरे की ओर देखते हैं। घंटी फिर बजती है।)
: (धीमे स्वर में) इस वक़्त कौन आ मरा ?
स्त्रीः (उसी प्रकार कहीं रंजीत तो नहीं है ?
पुरुषः वो क्या आएगा ! उसे पता है कि हम लोग यहाँ हैं।
(घंटी)
खिड़की से देखो दरवाज़ा दिखाई तो देता ही है।
पुरुषः और जो उसकी नज़र पड़ गयी तो ?
स्त्रीः पर्दा ज़रा-सा खिसकाना।
(पुरुष गिलास मेज़ पर रखकर दबे पाँव खिड़की तक जाता है। पर्दे का कोना थोड़ा-सा सरकाकर, झुककर देखता है। स्त्री एक दो क़दम उस तरफ़ बढ़ जाती है।)
: (फुसफुसाकर) कौन है ?
पुरुषः सिर्फ़ पैर दिखाई दे रहे हैं। बादामी-सी पतलून पहने है।
(घंटी)
स्त्रीः कही उनका कोई दोस्त या रिश्तेदार न हो ! बाहर से आया हो।
पुरुषः बरामदे में सामान तो नहीं !
स्त्रीः न स्कूटर-टैक्सी की आवाज़ ही सुनाई दी है।
पुरुषः सड़क पर है भी नहीं कोई सवारी !
स्त्रीः (खिड़की के दूसरे कोने की ओर संकेत करते हुए) ज़रा इस तरफ़ से देखो।
(पुरुष निःशब्द स्थान बदलता है। कुछ क्षण बाहर देखता रहता है। पलटता है। स्थिर दृष्टि से स्त्री को देखता है।)
पुरुषः डाकिया है।
स्त्रीः ओह...!
पुरुषः (फिर बाहर देखने लगता है। स्त्री खिड़की तक जाती है। पर्दा ज़रा-सा खिसकाकर बाहर देखने लगती है कुछ क्षणों के बाद पुरुष का प्रवेश। हाथ में एक कागज़। स्त्री पलटकर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखती है।)
: एक रजिस्ट्री की इत्तिला है कि आकर डाकखाने से ले लो, वरना वापस हो जाएगी।
(बड़ी मेज़ पर रखकर पेपरवेट से दबा देता है। दोनों
टेबिल के पास आकर अपने-अपने गिलास उठा लेते हैं।)
स्त्रीः लैच में यही खराबी है। मालूम नहीं पड़ता कि अन्दर कोई..नहीं।
पुरुष : (मुस्कान सहित) और मनोहर वाले हादसे के बाद कह रही थीं...कि ताले में यही ख़राबी है। मालूम पड़ जाता है कि अन्दर कोई...है।
स्त्रीः (झेंप जाती है गिलास मुँह से लगाती है। कुछ रुककर) ठंडी तो नहीं हो गई ?
पुरुषः (एक घूट भरता है) (एक हाथ की उँगलियों से बन्द पलकें, भवें और माथा सहलाता है।) तुम्हारे पर्स में कोई टिकिया तो नहीं होगी सरदर्द की ?
स्त्रीः है।
(उठती है। पर्स से टिकिया लाती है। पुरुष रैपर की गोली बनाकर ऐश-ट्रे में डाल देता है। टिकिया चाय के एक घूँट के साथ निगल जाता है।)
:क्या बात है ? दर्द है सिर में ?
पुरुषः हाँ..सुबह से ही हो रहा है-हल्का-हल्का। रात को कई बार उठना पड़ता है न !
स्त्रीः कैसी तबीयत है अब बच्चे की ?
पुरुषः वैसी ही।
स्त्रीः कोई फा़यदा नहीं है ?
पुरुषः कुछ ख़ास नहीं।...रात को रोज़ाना बुखार हो आता है। दिन में कई बार दर्द भी होता है सीने में। पर रह-रहकर खाँसी। एक बार शुरू होती है, तो फिर पाँच-पाँच मिनट तक रुकने का नाम नहीं लेती।
स्त्रीः दवा क्या हो रही है ?
पुरुषः बस वही सिरप, वही मिक्सचर, वही गोलियाँ।...कभी आधी की जगह पूरी टिकिया कर दी, कभी एक डोज़ को पूरे से आधा कर दिया।
स्त्रीः कहता क्या है डॉक्टर ?
पुरुषः कहेगा क्या ! बस वही पुरानी रट-घबराइये मत, एक्सपोज़र हो गया है। कमज़ोर बहुत है, इसलिए रिकवर नहीं कर पा रहा है। अंगूर, मुसम्मी, विटामिन, दूध-जितना हो सके उतना..और पेट उसका ऐसा हो गया है कि एक कप दलिया तक नहीं हजम कर पाता।
स्त्रीः किसी और को दिखालाओ।
पुरुषः (विचारपूर्ण स्वर में) हाँ, सोचता हूँ। तीन हफ्ते हो गये हैं अब तक।
स्त्रीः हमारी तरफ़ डॉक्टर दास गुप्ता हैं न, सुनते हैं, काफ़ी अच्छे हैं।
पुरुषः हाँ...यों एक दोस्त ने विलिंगडन के एक डॉक्टर के लिए कहा है। उसकी कुछ रिश्तेदारी है। फ़ोन कर देगा या मिलवा देगा।
स्त्रीः हाँ देख लो।
पुरुषः (दोनों हाथों से आँख मूँद लेता है। निढाल सा) रात-रात भर सोने नहीं देता। कई-कई बार उठकर खाँसता है, रोता है। (विराम) स्त्री मेज़ से छोटा-सा पैकेट उठाती है। बाहर से ही टटोलती है।)
स्त्रीः कपड़ा-सा कुछ।
पुरुषः फ्राक है-बच्ची के लिए।...कई दिन से रट लगाए थी।
स्त्रीः मीनू मिली कहाँ फिर ?
पुरुषः तिलकनगर के पुलिस स्टेशन से।
स्त्रीः खोई किस तरह ?
पुरुषः ग़लत बस में बैठ गई थी।...(लम्बी सांस लेकर) ओफ़्फो, उस दिन तो इतनी परेशनी उठाई कि जिसकी हद नहीं ! मालरोड से लेकर हौज़खास तक, सारे स्टेशन छान डाले ।....पचास-साठ रुपए ख़र्च हो गये होंगे आने-जाने में !
स्त्रीः भेजा किसलिए था ?
पुरुषः (स्थिर दृष्टि से देखता है।) कढ़ाई का नया नमूना लेने के लिए...जैसे उसके बिना दुनिया के सारे काम रुके जा रहे थे !
स्त्रीः (मुस्कुराकती है) कमाल है !
पुरुषः दस बार समझा दिया कि देखो, यहाँ की बसों का कुछ ठीक नहीं। भीड़ बहुत होती है। फिर लड़की छोटी है अभी अकेली आने-जाने लायक नहीं है, लेकिन मजाल है जो कान दे मेरी बात पै !
स्त्रीः अक्सर ही तो सुनने में आती हैं ऐसी बातें- कहीं कोई बच्चा ग़ायब हो गया, कहीं किसी लड़की को उठा ले गए।
पुरुषः (एकाएक बौखलाकर) दरअसल उसकी कुढ़न थी मुझ पै ! पाँच-छः दिन से कोई मौका नहीं मिला था लड़ने का। बस, इसी बहाने कलेजा ठंडा कर लिया !
स्त्रीः (नासमझी से) मगर इस तरह से फ़िजूल में..झूठमूठ...?
पुरुषः वो इसी तरह गुबार भरे रहती है मेरे लिए-हमेशा आमादा, हमेशा घुन्नायी....
स्त्रीः चाहे कोई बात न हो फिर भी ?
पुरुषः (कड़वाहट से) क्यों ? बात क्यों नहीं है ?,....लड़का बीमार हो गया, यह मेरा क़सूर है ! लड़की फ़ेल हो गयी, यह मेरी ग़लती है ! पानी का न आना, सब्ज़ी की ख़राबी, बिजली का चला जाना, चीज़ों की मंहगाई-सब मेरी वजह से है, सबके लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ !
(विराम)
स्त्रीः पहले तो ऐसी नहीं थी ?
पुरुषः थी ग़डबड़ शुरू से ही, मगर इतनी चिड़चिड़ी नहीं थी।...अब तो जैसे खून खौल उठता है उसका, जैसे ही देखती है कि मैं घड़ी-भर के लिए आराम से बैठा हूँ।....बस घर में पाव रखा नहीं कि चिक-चिक शुऱू हुई नहीं....(क्षणिक विराम) जब से छोटा पैदा हुआ है, तब से नई तोहमतें...तुमने मेरी तन्दुरुस्ती चौपट कर दी, तुम मुझे मार डालना चाहते हो, कोई कह सकता है मुझे देखकर कि मैं तीसरी बार बच्चा पैदा करने के लायक हूँ ?
स्त्रीः (कुछ हिचकिचाकर) मगर तुम खुद भी तो कहते थे कि दो ही बहुत हैं।
पुरुषः (हल्की झेप से, अटक-अटककर) वो गड़बड़ उसी महीने से हो गई, जब टंडन का तबादला हुआ था।....तुमसे मिलना नहीं हुआ था और मेरा भगवान जानता है, पहल उसी ने की थी....अलमारी देखी मैंने तो उसमें वो चीज़ नहीं थी।...कहने लगी, फ़िकर मत करो।...मुझे क्या पता था कि...(विराम) दिन-रात डर समाया रहता है मन में कि बस, कुछ हुआ।... हमेशा घुटन, हमेशा तनाव ऊब गया हूँ अब, तंग आ चुका हूँ।
स्त्रीः कुछ पता तो नहीं चल गया कहीं ?
पुरुषः कह नहीं सकता पर अगर मालूम हो गया होता, तो ऐसे ही नहीं छोड़ देती।...अलबत्ता कुछ शक ज़रूर है उसे। अक्सर कपड़ों-अपड़ों की तलाशी लेती रहती है। (विराम। आवेग से) पता नहीं कौन से पाप किये थे पिछले जन्म में कि यह सज़ा मिली !
(दोनों हाथों से सिर थामे, निढाल-सा बैठा रहता है। स्त्री कुछ क्षणों तक उस ओर देखती रहती है आगे बढ़ती है खिड़की खोलती है, पर्दा हटा देती है।
स्त्रीः एकाएक झुकती हुई, घबराहट से) हे भगवान् !
पुरुषः (चीख़कर मुँह उठाता है) क्या हुआ है ?
स्त्रीः सामने एक बच्चे ने देख लिया मुझे !
पुरुषः (नाराज़गी से) कमाल करती हो तुम भी ! खिड़की खोलने की क्या ज़रूरत थी ?
स्त्रीः (अपराधी-सी) घुटन-सी हो रही थी। मैंने सोचा कि थोड़ी ताज़ी हवा...
पुरुषः अब मज़ा लो ताज़ी हवा का !
(कुछ क्षणों वैसे ही देखता रहता है। स्त्री कार्पेट पर उकड़ूँ बैठी है। पुरुष उठता है। झुका-झुका दूसरी खिड़की तक पहुँचता है। पर्दे का कोना ज़रा-सा हटाकर बाहर देखता है।)
:(बाहर देखते हुए) देख रहा है अभी इसी तरफ़। (विराम) गर्दन घुमाकर बुला रहा है किसी को। (विराम) एक औरत आ गई है। (क्षणिक विराम) झाँक रही है इसी तरफ़।
स्त्रीः (धीमे स्वर में) डर पड़ा है किसी का ! कह देंगे हम मियाँ-बीवी हैं !
(पुरुष मुड़कर स्त्री को देखता है। दोनों की दृष्टि मिलती है। विराम ! पुरुष फिर बाहर देखता है। विराम। पलटता है।)
पुरुषः चले गये दोनों।...खिड़की भी बन्द है।
(दोनों की निगाहें कुछ पल मिली रहती हैं। स्त्री गहरी साँस लेकर उठती है। खिड़की पूर्वत बन्द करके पर्दा खींच देती है। पुरुष एक सिगरेट सुलगाता है। तीली बुझाकर ऐश-ट्रे में डाल देता है।)
: तुम लोगी ?
स्त्रीः दे दो।
(पुरुष पैकेट व माचिस स्त्री की ओर बढ़ाता है। वह भी एक सिगरेट जलाती है। धुआँ निकालते हुए कलाई की घड़ी देखती है।)
:अब चलना चाहिए।
पुरुषः क्यों ? सवा तीन बजे हैं अभी तो।....तुम्हें कही जाना है क्या ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः (कुछ रुककर) कहाँ ?
स्त्रीः प्लाज़ा।
पुरुषः ओह फ़िल्म देख रही हो ?
स्त्रीः हाँ। तुमसे ज़िक्र नहीं आया शायद।.....आजकल भाई आया हुआ है।
पुरुषः अऽच्छा....। कौन-सी फ़िल्म है ?
स्त्रीः कोई अंग्रेज़ी...
पुरुषः टिकिट तुम्हारे ही पास है ?
स्त्रीः नहीं, उसी के।
पुरुषः नीरू भी होगी ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः तो चार तक पहुँच जाना। मेन पिक्चर तो इंटरवल के बाद ही होगी शुरू।
स्त्रीः हूँ।
पुरुषः कितने दिन की छुट्टी है चन्दन की ?
स्त्रीः यही कोई सात आठ दिन।
पुरुषः यह तो आख़िरी साल है उसका ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः फिर ?
पुरुषः आयु लगभग 35 वर्ष
स्थान-समय
सोने का कमरा । दोपहर।
(बन्द दरवाज़े-खिड़कियों पर पर्दे खिंचे हुए हैं, इसलिए सबकुछ धुँधला है। हल्का-सा आभास कि डबल-बेड पर कोई लेटा या लेटे हुए हैं। कपड़ों की सरसराहट और चूँड़ियों की हल्की-सी खनखनाहट। स्त्री उठकर बैठती है। चप्पलों में पाँव डालते हुए खड़ी हो जाती है। एक दीवार के पास आकर स्विच दबाती है। प्रकाश। स्त्री पेटीकोट-ब्लाउज़ में है, बाल खुले हैं, बिस्तर पर पुरुष लेटा है-पैंट-बनियान में। स्त्री नाइट-टेबल तक आती है। उस पर प्लेट से ढँका जग व गिलास है। आधा गिलास भरती है। छोटे-छोटे घूँटों से खाली कर देती है। वापस रखती है। एकाएक ठिठक जाती है।)
स्त्रीः (पुरुष की ओर देखते हुए) पानी चाहिए तुम्हें ?
पुरुषः (आँखें खोलते हुए) दे दो।
(स्त्री आधा गिलास पानी का भरती है। पास आ जाती है। पुरुष उठकर बैठता है। गिलास लेकर दो-तीन बार में खाली कर देता है। स्त्री गिलास लेकर टेबल पर रख देती है। पुरुष एक-दो जमुहाइयाँ लेता है। सिरहाने से पैकेट व माचिस उठाता है। सिगरेट मुँह में दबाता है। सुलगाता है)
पुरुषः (बुझी तीली हाथ में लिए) ऐश-ट्रे उठा देना ज़रा।
(स्त्री हाथ बढाकर टेबल से ऐश-ट्रे उठाकर दे देती है।
पुरुष बगल में रखकर तीली उसमें डाल देता है।)
दो-तीन कश खींचता है।)
स्त्रीः इस घर की सफ़ाई कमाल है-हर चीज़ सही जगह पे रखी हुई....
पुरुषः (कुछ रुककर) रंजीत हमेशा से ही है ऐसा।
स्त्रीः (हलकी मुस्कान से) और तुम्हारे मनोहर का कमरा था।...बिलकुल कबाड़खाना !
पुरुषः (उबासी लेकर) मनमौजी आदमी है।
स्त्रीः (तनिक
ठहरकर) परसों नज़र आया था मुझे।
पुरुषः (स्त्री की ओर देखता है) अच्छा, कहाँ ?
स्त्रीः रीगल के स्टॉप पर।
पुरुषः क्या बात हुई ?
स्त्रीः (भौंहे चढ़ाकर) बात क्या होती ! मैं उसे देखकर लोगों की ओट में हो गयी।.....तुम समझते क्या हो ? उस दिन के हादसे के बाद मैं बात करूँगी उससे ?
पुरुषः (नरमी से) उस बेचारे की क्या गलती है ? वो तो खुद इतना शर्मिन्दा है !...चार दफ़ा उसने फ़ोन किया। फिर एक बार खुद आया माफ़ी माँगने।
स्त्रीः (नाराज़गी से) माफ़ी माँगने से क्या हो जाता है ?...सोचो ज़रा अगर वो औरत फ़ोन करके पुलिस को बुला लेती, तो ?...कितना हंगामा होता !...पता है, एडल्ट्री की क्या सज़ा है ?
पुरुषः (हलकी मुस्कान से) तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे मैं ही फँसता अकेला ! तुम्हारा कुछ नहीं होता !
स्त्रीः (मुस्करा पड़ती है) मेरा क्या होता ? मैं कह देती कि मेरे साथ....ज़बर्दस्ती की गयी है।
पुरुषः (रस लेते हुए) जी हाँ, ज़रूर ! पिछले दो सालों से हर शनिवार को मैं आपके साथ कर रहा हूँ ज़बर्दस्ती-और आप हैं कि चुपचाप, मजबूर होकर....
स्त्रीः (संजीदगी से) लेकिन उसे बतलाना तो चाहिए था कि मकान-मालकिन इस तरह की है !...और एक तुम हो कि न कुछ पूछा न ताछा, चाबी ली और चले आए मुँह उठाए !
पुरुषः मुझे क्या पता था कि वह कुतिया की तरह सूंघती फिरेगी !
स्त्रीः मुझे तो शक्ल से ही लगी थी कमीनी !
पुरुषः (कुछ रुककर) दरअसल बेसब्री में खयाल नहीं किया।...दिसम्बर में तबादला हुआ था टंडन का, और उसके बाद पूरे दो महीने बीत चुके थे...(दुष्ट मुस्कान से) रोज़ाना आता था तुम्हारा टेलीफ़ोन !
स्त्रीः (बुरा न मानते हुए) हाँ ज़रूर मैं ही तो पड़ी हूँ तुम्हारे पीछे !
(पुरुष चाहभरी दृष्टि से स्त्री को देखता है। एकाएक पास झुक आता है।)
पुरुषः (एक लट थामते हुए) तुम्हारे बाल कुछ-कुछ...पकने लगे हैं।
स्त्रीः (गहरी सांस लेकर) उम्र भी तो हो गई।
पुरुषः (सीधा हो जाता है) लगाती क्यों नहीं हो कुछ ?
स्त्रीः (उठती है। कुर्सी पर पड़ी अपनी साड़ी उठाते हुए) झंझट है एक बार शुरू करो तो चलता ही रहता है हमेशा।
पुरुषः (धुँए का छल्ला बनाते हुए, अर्धपूर्ण स्वर में) हाँ, झंझट तो है। एक बार शुरू करो, तो चलता ही रहता है हमेशा !
(दरवाज़े की ओर बढते हुए स्त्री बीच में ठिठक जाती है। पुरुष को देखती है-हलकी मुस्कान से। बाहर निकल जाती है। विराम। पुरुष सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल देता है। एक ब़ड़ी अँगड़ाई लेता है। इस-उस चीज़ को छूते हुए एकाध चक्कर लगाता है। रेडियोग्राम के सामने रुकता है। रेडियो का स्विच दबा देता है। सुई घुमाने लगता है। एक स्टेशन से संगीत की मद्धिम धुन सुनाई देने लगती है। आवाज़ बहुत कम कर देता है फिर एकाध चक्कर लगाता है। स्त्री का प्रवेश। साड़ी पहन ली है। मुँह धो लिया है।)
:पानी रख दिया ?
स्त्रीः हाँ।
(मेज़ पर से अपना पर्स उठाती है। ड्रेसिंग टेबल के सामने आ, स्टूल पर बैठ जाती है। पर्स खोलती है। मेकअप ठीक करने लगती है। पुरुष का प्रस्थान। विराम। स्त्री उठ खड़ी होती है आगे पीछे से आपने को आइने में देखती है। एकाध चक्कर लगाती है। इस-उस चीज़ को निरखती-परखती है। अलमारी खोलकर झाँकती है। पुरुष का प्रवेश।)
:कपड़े बहुत हैं तुम्हारे दोस्त के पास !
पुरुषः शौक़ीन तबियत है।
(आइने के सामने आ बालों में कंघी करने लगता है।) स्त्रीः देखने में कैसा है ?
पुरुषः अच्छा-खासा।
स्त्रीः ऐसा ?
पुरुषः हाँ दिखा दूँगा जल्दी।... वो भी कह रहा था कि किसी दिन बना लो प्रोग्राम।
स्त्रीः बिना देखे भी अन्दाज़ा लगा सकती हूँ मैं।
पुरुषः ऐसा ?
स्त्रीः हाँ...। आदमी को देखकर ग़लतफ़हमी हो सकती है घर के बारे में लेकिन घर को देखकर आदमी को बहुत-कुछ जाना जा सकता है।
पुरुषः तुमने ऐसे ही अन्दाज़ा लगाया था, मेरे पिछले दोनों दोस्तों के बारे में ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः सही निकला ?
स्त्रीः काफ़ी हद तक।....मैं ग़लत ज़रा कम होती हूँ।
पुरुषः (कुछ ठहरकर चोट खाया-सा) क्यों न हो ! इतना तजुर्बा जो है !
स्त्रीः स्थिर दृष्टि से देखती है । भावहीन। फिर तनिक-सा मुस्कराती है)
बुरा मान गए ?
(तत्क्षण बाहर चली जाती है। पुरुष पल-भर दरवाज़े की ओर देखता है। फिर कुर्सी पर पड़ी अपनी बुश्शर्ट उठाता है। आइने के सामने आ बटन लगाने लगता है। स्त्री दरवाज़े से झाँकती है।
:सुनो ! कुछ बिस्किट पड़े हैं यहाँ।..लोगे ?
पुरुषः दे दो।
(स्त्री चली जाती है। पुरुष पलंग तक आकर पैकेट उठता है। एक सिगरेट जलाता है। दो-तीन कश खींचता है। स्त्री का प्रवेश। छोटी-सी ट्रे में चाय के दो गिलास। एक प्लेट में कुछ बिस्किट। ट्रे टेबल पर रख देती है। दोनों चाय की एक-एक चुस्की लेते हैं। अचानक घंटी की आवाज़ सुनाई देती है। दोनों जहाँ के तहाँ, स्तब्ध रह जाते हैं। एक दूसरे की ओर देखते हैं। घंटी फिर बजती है।)
: (धीमे स्वर में) इस वक़्त कौन आ मरा ?
स्त्रीः (उसी प्रकार कहीं रंजीत तो नहीं है ?
पुरुषः वो क्या आएगा ! उसे पता है कि हम लोग यहाँ हैं।
(घंटी)
खिड़की से देखो दरवाज़ा दिखाई तो देता ही है।
पुरुषः और जो उसकी नज़र पड़ गयी तो ?
स्त्रीः पर्दा ज़रा-सा खिसकाना।
(पुरुष गिलास मेज़ पर रखकर दबे पाँव खिड़की तक जाता है। पर्दे का कोना थोड़ा-सा सरकाकर, झुककर देखता है। स्त्री एक दो क़दम उस तरफ़ बढ़ जाती है।)
: (फुसफुसाकर) कौन है ?
पुरुषः सिर्फ़ पैर दिखाई दे रहे हैं। बादामी-सी पतलून पहने है।
(घंटी)
स्त्रीः कही उनका कोई दोस्त या रिश्तेदार न हो ! बाहर से आया हो।
पुरुषः बरामदे में सामान तो नहीं !
स्त्रीः न स्कूटर-टैक्सी की आवाज़ ही सुनाई दी है।
पुरुषः सड़क पर है भी नहीं कोई सवारी !
स्त्रीः (खिड़की के दूसरे कोने की ओर संकेत करते हुए) ज़रा इस तरफ़ से देखो।
(पुरुष निःशब्द स्थान बदलता है। कुछ क्षण बाहर देखता रहता है। पलटता है। स्थिर दृष्टि से स्त्री को देखता है।)
पुरुषः डाकिया है।
स्त्रीः ओह...!
पुरुषः (फिर बाहर देखने लगता है। स्त्री खिड़की तक जाती है। पर्दा ज़रा-सा खिसकाकर बाहर देखने लगती है कुछ क्षणों के बाद पुरुष का प्रवेश। हाथ में एक कागज़। स्त्री पलटकर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखती है।)
: एक रजिस्ट्री की इत्तिला है कि आकर डाकखाने से ले लो, वरना वापस हो जाएगी।
(बड़ी मेज़ पर रखकर पेपरवेट से दबा देता है। दोनों
टेबिल के पास आकर अपने-अपने गिलास उठा लेते हैं।)
स्त्रीः लैच में यही खराबी है। मालूम नहीं पड़ता कि अन्दर कोई..नहीं।
पुरुष : (मुस्कान सहित) और मनोहर वाले हादसे के बाद कह रही थीं...कि ताले में यही ख़राबी है। मालूम पड़ जाता है कि अन्दर कोई...है।
स्त्रीः (झेंप जाती है गिलास मुँह से लगाती है। कुछ रुककर) ठंडी तो नहीं हो गई ?
पुरुषः (एक घूट भरता है) (एक हाथ की उँगलियों से बन्द पलकें, भवें और माथा सहलाता है।) तुम्हारे पर्स में कोई टिकिया तो नहीं होगी सरदर्द की ?
स्त्रीः है।
(उठती है। पर्स से टिकिया लाती है। पुरुष रैपर की गोली बनाकर ऐश-ट्रे में डाल देता है। टिकिया चाय के एक घूँट के साथ निगल जाता है।)
:क्या बात है ? दर्द है सिर में ?
पुरुषः हाँ..सुबह से ही हो रहा है-हल्का-हल्का। रात को कई बार उठना पड़ता है न !
स्त्रीः कैसी तबीयत है अब बच्चे की ?
पुरुषः वैसी ही।
स्त्रीः कोई फा़यदा नहीं है ?
पुरुषः कुछ ख़ास नहीं।...रात को रोज़ाना बुखार हो आता है। दिन में कई बार दर्द भी होता है सीने में। पर रह-रहकर खाँसी। एक बार शुरू होती है, तो फिर पाँच-पाँच मिनट तक रुकने का नाम नहीं लेती।
स्त्रीः दवा क्या हो रही है ?
पुरुषः बस वही सिरप, वही मिक्सचर, वही गोलियाँ।...कभी आधी की जगह पूरी टिकिया कर दी, कभी एक डोज़ को पूरे से आधा कर दिया।
स्त्रीः कहता क्या है डॉक्टर ?
पुरुषः कहेगा क्या ! बस वही पुरानी रट-घबराइये मत, एक्सपोज़र हो गया है। कमज़ोर बहुत है, इसलिए रिकवर नहीं कर पा रहा है। अंगूर, मुसम्मी, विटामिन, दूध-जितना हो सके उतना..और पेट उसका ऐसा हो गया है कि एक कप दलिया तक नहीं हजम कर पाता।
स्त्रीः किसी और को दिखालाओ।
पुरुषः (विचारपूर्ण स्वर में) हाँ, सोचता हूँ। तीन हफ्ते हो गये हैं अब तक।
स्त्रीः हमारी तरफ़ डॉक्टर दास गुप्ता हैं न, सुनते हैं, काफ़ी अच्छे हैं।
पुरुषः हाँ...यों एक दोस्त ने विलिंगडन के एक डॉक्टर के लिए कहा है। उसकी कुछ रिश्तेदारी है। फ़ोन कर देगा या मिलवा देगा।
स्त्रीः हाँ देख लो।
पुरुषः (दोनों हाथों से आँख मूँद लेता है। निढाल सा) रात-रात भर सोने नहीं देता। कई-कई बार उठकर खाँसता है, रोता है। (विराम) स्त्री मेज़ से छोटा-सा पैकेट उठाती है। बाहर से ही टटोलती है।)
स्त्रीः कपड़ा-सा कुछ।
पुरुषः फ्राक है-बच्ची के लिए।...कई दिन से रट लगाए थी।
स्त्रीः मीनू मिली कहाँ फिर ?
पुरुषः तिलकनगर के पुलिस स्टेशन से।
स्त्रीः खोई किस तरह ?
पुरुषः ग़लत बस में बैठ गई थी।...(लम्बी सांस लेकर) ओफ़्फो, उस दिन तो इतनी परेशनी उठाई कि जिसकी हद नहीं ! मालरोड से लेकर हौज़खास तक, सारे स्टेशन छान डाले ।....पचास-साठ रुपए ख़र्च हो गये होंगे आने-जाने में !
स्त्रीः भेजा किसलिए था ?
पुरुषः (स्थिर दृष्टि से देखता है।) कढ़ाई का नया नमूना लेने के लिए...जैसे उसके बिना दुनिया के सारे काम रुके जा रहे थे !
स्त्रीः (मुस्कुराकती है) कमाल है !
पुरुषः दस बार समझा दिया कि देखो, यहाँ की बसों का कुछ ठीक नहीं। भीड़ बहुत होती है। फिर लड़की छोटी है अभी अकेली आने-जाने लायक नहीं है, लेकिन मजाल है जो कान दे मेरी बात पै !
स्त्रीः अक्सर ही तो सुनने में आती हैं ऐसी बातें- कहीं कोई बच्चा ग़ायब हो गया, कहीं किसी लड़की को उठा ले गए।
पुरुषः (एकाएक बौखलाकर) दरअसल उसकी कुढ़न थी मुझ पै ! पाँच-छः दिन से कोई मौका नहीं मिला था लड़ने का। बस, इसी बहाने कलेजा ठंडा कर लिया !
स्त्रीः (नासमझी से) मगर इस तरह से फ़िजूल में..झूठमूठ...?
पुरुषः वो इसी तरह गुबार भरे रहती है मेरे लिए-हमेशा आमादा, हमेशा घुन्नायी....
स्त्रीः चाहे कोई बात न हो फिर भी ?
पुरुषः (कड़वाहट से) क्यों ? बात क्यों नहीं है ?,....लड़का बीमार हो गया, यह मेरा क़सूर है ! लड़की फ़ेल हो गयी, यह मेरी ग़लती है ! पानी का न आना, सब्ज़ी की ख़राबी, बिजली का चला जाना, चीज़ों की मंहगाई-सब मेरी वजह से है, सबके लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ !
(विराम)
स्त्रीः पहले तो ऐसी नहीं थी ?
पुरुषः थी ग़डबड़ शुरू से ही, मगर इतनी चिड़चिड़ी नहीं थी।...अब तो जैसे खून खौल उठता है उसका, जैसे ही देखती है कि मैं घड़ी-भर के लिए आराम से बैठा हूँ।....बस घर में पाव रखा नहीं कि चिक-चिक शुऱू हुई नहीं....(क्षणिक विराम) जब से छोटा पैदा हुआ है, तब से नई तोहमतें...तुमने मेरी तन्दुरुस्ती चौपट कर दी, तुम मुझे मार डालना चाहते हो, कोई कह सकता है मुझे देखकर कि मैं तीसरी बार बच्चा पैदा करने के लायक हूँ ?
स्त्रीः (कुछ हिचकिचाकर) मगर तुम खुद भी तो कहते थे कि दो ही बहुत हैं।
पुरुषः (हल्की झेप से, अटक-अटककर) वो गड़बड़ उसी महीने से हो गई, जब टंडन का तबादला हुआ था।....तुमसे मिलना नहीं हुआ था और मेरा भगवान जानता है, पहल उसी ने की थी....अलमारी देखी मैंने तो उसमें वो चीज़ नहीं थी।...कहने लगी, फ़िकर मत करो।...मुझे क्या पता था कि...(विराम) दिन-रात डर समाया रहता है मन में कि बस, कुछ हुआ।... हमेशा घुटन, हमेशा तनाव ऊब गया हूँ अब, तंग आ चुका हूँ।
स्त्रीः कुछ पता तो नहीं चल गया कहीं ?
पुरुषः कह नहीं सकता पर अगर मालूम हो गया होता, तो ऐसे ही नहीं छोड़ देती।...अलबत्ता कुछ शक ज़रूर है उसे। अक्सर कपड़ों-अपड़ों की तलाशी लेती रहती है। (विराम। आवेग से) पता नहीं कौन से पाप किये थे पिछले जन्म में कि यह सज़ा मिली !
(दोनों हाथों से सिर थामे, निढाल-सा बैठा रहता है। स्त्री कुछ क्षणों तक उस ओर देखती रहती है आगे बढ़ती है खिड़की खोलती है, पर्दा हटा देती है।
स्त्रीः एकाएक झुकती हुई, घबराहट से) हे भगवान् !
पुरुषः (चीख़कर मुँह उठाता है) क्या हुआ है ?
स्त्रीः सामने एक बच्चे ने देख लिया मुझे !
पुरुषः (नाराज़गी से) कमाल करती हो तुम भी ! खिड़की खोलने की क्या ज़रूरत थी ?
स्त्रीः (अपराधी-सी) घुटन-सी हो रही थी। मैंने सोचा कि थोड़ी ताज़ी हवा...
पुरुषः अब मज़ा लो ताज़ी हवा का !
(कुछ क्षणों वैसे ही देखता रहता है। स्त्री कार्पेट पर उकड़ूँ बैठी है। पुरुष उठता है। झुका-झुका दूसरी खिड़की तक पहुँचता है। पर्दे का कोना ज़रा-सा हटाकर बाहर देखता है।)
:(बाहर देखते हुए) देख रहा है अभी इसी तरफ़। (विराम) गर्दन घुमाकर बुला रहा है किसी को। (विराम) एक औरत आ गई है। (क्षणिक विराम) झाँक रही है इसी तरफ़।
स्त्रीः (धीमे स्वर में) डर पड़ा है किसी का ! कह देंगे हम मियाँ-बीवी हैं !
(पुरुष मुड़कर स्त्री को देखता है। दोनों की दृष्टि मिलती है। विराम ! पुरुष फिर बाहर देखता है। विराम। पलटता है।)
पुरुषः चले गये दोनों।...खिड़की भी बन्द है।
(दोनों की निगाहें कुछ पल मिली रहती हैं। स्त्री गहरी साँस लेकर उठती है। खिड़की पूर्वत बन्द करके पर्दा खींच देती है। पुरुष एक सिगरेट सुलगाता है। तीली बुझाकर ऐश-ट्रे में डाल देता है।)
: तुम लोगी ?
स्त्रीः दे दो।
(पुरुष पैकेट व माचिस स्त्री की ओर बढ़ाता है। वह भी एक सिगरेट जलाती है। धुआँ निकालते हुए कलाई की घड़ी देखती है।)
:अब चलना चाहिए।
पुरुषः क्यों ? सवा तीन बजे हैं अभी तो।....तुम्हें कही जाना है क्या ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः (कुछ रुककर) कहाँ ?
स्त्रीः प्लाज़ा।
पुरुषः ओह फ़िल्म देख रही हो ?
स्त्रीः हाँ। तुमसे ज़िक्र नहीं आया शायद।.....आजकल भाई आया हुआ है।
पुरुषः अऽच्छा....। कौन-सी फ़िल्म है ?
स्त्रीः कोई अंग्रेज़ी...
पुरुषः टिकिट तुम्हारे ही पास है ?
स्त्रीः नहीं, उसी के।
पुरुषः नीरू भी होगी ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः तो चार तक पहुँच जाना। मेन पिक्चर तो इंटरवल के बाद ही होगी शुरू।
स्त्रीः हूँ।
पुरुषः कितने दिन की छुट्टी है चन्दन की ?
स्त्रीः यही कोई सात आठ दिन।
पुरुषः यह तो आख़िरी साल है उसका ?
स्त्रीः हाँ।
पुरुषः फिर ?
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